हिंदुस्तान में किसानों का संघर्ष पुराना - भारत में किसान आंदोलनों का इतिहास बहुत पुराना है। मुगल काल में औरंगजेब के शासनकाल में देश में वीर गोवुला जैसे किसान नेता हुए हैं, जिन्हें किसान क्रांति करने वाले वीर गौवुला सिह के नाम से जाना जाता है। गौवुल सिह जाट किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले तिलपत गाँव के सरदार आज के परिपेक्ष में कहे तो सरपंच या प्रधान थे। 10 मईं 1666 को किसानों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में भयंकर लड़ाईं
हुईं थी। दरअसल मुगल शासन ने किसानों पर भारी भरकम कर लगा दिया था। जिसको चुकाने
में किसान असमर्थ था किसानों की परेशानी को देखते हुए गोवुला ने किसानों को
संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। हालांकि लड़ाईं के बाद औरंगजेब की
शत्तिशाली सेना ने गोवुला को बंदी बनाकर 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर टुकड़े टुकड़े कर शहीद कर दिया।
हालांकि गोवुला के बलिदान से ही मुगल शासन के खात्मे की शुरुआत हुईं। मुगल काल के बाद किसानों ने अंग्रेजों की भी चूलें हिलाने का काम किया। ब्रिटिश राज में समय-समय पर कईं किसान आंदोलन हुए। जिनमें से संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है और उन्हें किसान आंदोलन का जनक कहा जाता है। सहजानंद सरस्वती के बचपन में ही मां का निधन हो गया था। उनके पिता एक गरीब किसान थे। दण्डी संन्यासी
होने के बावजूद सहजानंद ने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर
बताते हुए किसानों को लेकर नारा दिया था : ‘जो अन्न-वस्त्र उपजायेगा अब सो कानून बनायेगा, ये भारतवर्ष उसी का है अब शासन वहीं चलायेगा।’ हालांकि
स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले वुछ किसान आंदोलनों पर महात्मा गांधी का स्पष्ट
प्रभाव दिखता है, यही वजह है कि उस
समय के किसान आंदोलन अहिसक होते थे। जाहिर है कि साल 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने
ही संभाला था, क्योंकि
अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन किसानों के शोषण से ही उपजे थे। हकीकत में देखें
तो उस समय जितने भी ’किसान आंदोलन’ हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। महात्मा
गांधी और वल्लभभाईं पटेल के नेतृत्व में देश में नील पैदा करने वाले किसानों का
आंदोलन, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली में प्रमुख से आंदोलन
हुए। इनके अलावा अंग्रेजी राज में सहजानन्द सरस्वती जैसे किसान नेता ने किसान यूनियन का गठन करके अंग्रेजों से किसानों के हितों की लड़ाईं लड़ने का काम किया। जिसको बरकरार रखते हुए ब्रिटिश भारत के पंजाब की विधानसभा में ’सर’ छोटू राम ने राजस्व मंत्री रहते हुए वर्ष 1938 में ’वृषि उत्पाद मंडी अधिनियम’ पारित करवाकर किसानों को सौगात देने का काम किया। जिसकी परिकल्पना चौधरी चरण सिह ने की थी। ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत की लाहौर स्थित विधानसभा में ’वृषि उत्पाद मंडी अधिनियम -1938’ पारित किया गया, जो 5 मईं 1939 से लागू हो गया था। जिसे किसानों के लिए उस समय की बहुत बड़ी उपलब्धि माना गया और आगे चलकर मील का पत्थर साबित हुआ । सर छोटूराम, चौधरी चरण सिह और देवीलाल जैसे राजनैतिक किसान
नेताओं के बाद देश को चौधरी महेंद्र सिह टिवैत के रूप में एक अराजनीतिक किसान
नेता मिला। बाबा टिवैत की तो
पहचान किसान आंदोलन के कारण ही बनी और वह अपने समय के देश के सबसे बड़े किसान
नेता माने जाते थे। क्योंकि वें किसी राजनीतिक दल से सम्बंध न रखने वाले विशुद्ध
किसान नेता थे। उनके किसान नेता
बनने की शुरुआत मेरे कॉलेज जाने के समय हुईं, शामली के एक कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान बाबा
टिवैत के आंदोलन को मैंने बहुत बारीकी से देखा है। साल 1987 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले मुजफ्फरनगर अब शामली जिले के खेड़ी करमू
के बिजलीघर पर 1 अप्रैल, 1987 को हुईं। बाबा महेंद्र सिह टिवैत के नेतृत्व में
ह़जारों किसानों ने बिजली घर के घेराव का आह्वान किया था। यह वह दौर था जब
गांवों में मुश्किल से दो या तीन घन्टे बिजली मिल पाती और उसमें भी ट्रांसफार्मर
जल जाते थे, तो नया
ट्रांसफार्मर लेने की बहुत किल्लत होती थी। जिसकी वजह से कईं किसानों की गन्ने की फसल सूख कर बर्बाद हो जाती थी। गन्ना किसानों
में व्याप्त इसी रोष ने किसानों को शामली बिजली घर पर पहुंचने के लिए मजबूर कर
दिया था। क्षेत्र के किसानों को इसके बाद टिवैत के रूप में बड़ा किसान नेता भी
मिल गया था और वें समझ चुके थे कि कि वें बड़ा आंदोलन भी कर सकते हैं। जनवरी 1988 में किसानों ने बाबा टिवैत के नेतृत्व में अपने नए संगठन ’भारतीय किसान यूनियन’ के झंडे तले मेरठ में 25 दिनों का धरना आयोजित किया। जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली थी। उसी साल बाबा महेंद्र सिह टिवैत के नेतृत्व में 25 अक्टूबर 1988 को वेंद्र सरकार की नाक के नीचे नईं दिल्ली के वोट क्लब पर बड़ी किसान महा पंचायत हुईं। जिसमें उत्तर भारत के 14 राज्यों से लगभग 5 लाख किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक अपना कब्जा जमाया। इससे घबराईं तत्कालीन कांग्रेस की राजीव सरकार को वोटक्लब की अपनी प्रस्तावित रैली की जगह बदलकर वोटक्लब के बजाय लाल किला मैदान पर करनी पड़ी थी। ठेठ किसानी और गवईं अंदाज में बाबा टिवैत के सात दिन के के पी मलिक भा हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले वुछ किसान आंदोलनों पर महात्मा गांधी का स्पष्ट प्रभाव दिखता है, यही वजह है कि उस समय के किसान आंदोलन अहिसक होते थे। जाहिर है कि साल 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला था, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन किसानों के शोषण से ही उपजे थे। हकीकत में देखें तो उस समय जितने भी ’किसान आंदोलन’ हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। महात्मा गांधी और वल्लभभाईं पटेल के नेतृत्व में देश में नील पैदा करने वाले किसानों का आंदोलन, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली में प्रमुख से आंदोलन हुए। इनके अलावा अंग्रेजी राज में सहजानन्द सरस्वती जैसे किसान नेता ने किसान यूनियन का गठन करके अंग्रेजों से किसानों के हितों की लड़ाईं लड़ने का काम किया। जिसको बरकरार रखते हुए ब्रिटिश भारत के पंजाब की विधानसभा में ‘सर’ छोटू राम ने राजस्व मंत्री रहते हुए वर्ष 1938 में ‘वृषि उत्पाद मंडी अधिनियम’ पारित करवाकर किसानों को सौगात देने का काम किया। जिसकी
परिकल्पना चौधरी चरण सिह ने की थी। ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत की लाहौर स्थित
विधानसभा में ‘वृषि उत्पाद मंडी
अधिनियम - 1938’ पारित किया गया, जो 5 मईं 1939 से लागू हो गया था। जिसे किसानों के लिए उस समय की बहुत
बड़ी उपलब्धि माना गया और आगे चलकर मील का पत्थर साबित हुआ । घरने के सामने
आखिरकार वेंद्र सरकार को घुटने टेक कर नतमस्तक होना पड़ा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री
राजीव गांधी की सरकार के भारतीय किसान यूनियन की सभी 35 मांगों पर पैसला लेने का मौका देने की बात पर वोट
क्लब का धरना 31 अक्टूबर को खत्म
हुआ। आज राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में चल रहे ताजा आंदोलन की बात करें तो पंजाब से शुरू हुआ यह ऐसा किसान आंदोलन है जिसमें कोईं एक निश्चित किसान नेता तो नहीं है। लेकिन लगभग 40 से 45 यूनियंस हैं। जिनके अलग-अलग नेता हैं। परन्तु इसके बावजूद इस किसान आंदोलन को देख कर कह सकते हैं कि एक महीने से अधिक चलने वाले इस अनुशासित किसान आंदोलन को किसानों के लिए बड़ी जीत कह सकते हैं। दिल्ली की
सीमाओं के बाद आंदोलन का असर हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पािम बंगाल, आंध्र प्रदेश, बिहार समेत देश के अन्य हिस्सों में भी दिखाईं पड़ा हैं।
तीन नये कृषि कानूनों को लेकर किसानों और सरकार के बीच गतिरोध जारी है। पिछले एक
महीने से अधिक से देश के विभिन्न हिस्से से आये किसानों का प्रदर्शन के दौरान
किसान नेताओं ने आंदोलन में जान गंवाने वाले किसानों के परिजन के लिए मुआवजे की
मांग की है। सरकार से चर्चा
के दौरान किसान नेताओं का कहना है कि तीन वृषि कानूनों के बारे में हमारी मांगों
पर विचार करने के लिए एक समिति बनाईं जा सकती है। बहरहाल, किसानों ने साफ कर दिया है कि सरकार कानून वापस
नहीं लेगी तो प्रदर्शन खत्म नहीं होगा और अगर अगली 8 जनवरी को होने वाली बैठक में कोईं हल नहीं निकलता
है तो किसान 26 जनवरी को गणतंत्र
दिवस के अवसर पर ट्रैक्टरों की परेड राजपथ पर निकालेंगे। किसान यूनियन के
राष्ट्रीय प्रवत्ता राकेश टिवैत ने कहा कि अब वह राजपथ नहीं किसानपथ हो गया है, क्योंकि राजशाही तो कब की खत्म हो चुकी है। इससे
पहले किसानों और सरकार के बीच सात दौर की बातचीत के बाद भी अब तक कोईं हल नहीं
निकल सका है। किसान तीनों वृषि
कानूनों की वापसी मांग को लेकर अड़े हुए हैं तो वहीं दूसरी तरफ सरकार भी अपने
स्टैंड पर कायम हैं। किसान संगठनों का आरोप है कि नए तीन कानूनों की वजह से कृषि क्षेत्र भी पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका
नु़कसान किसानों को होगा। फिलहाल 8 जनवरी को आठवें दौर की बातचीत मोदी सरकार और किसान नेताओं
के बीच विज्ञान भवन में होने वाली है जिस पर पूरे देश के किसानों के अलावा
आमोखास की निगाहें लगी हुईं है। |
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