संत महात्माओं का सत्संग - 2

क्यों? ऐसा क्यों?

जमाने के इंकलाब से हैरान न हो क्योंकि आसमान को इस तरह की हजारों कहानियाँ और मंत्र याद हैं।' - ख्वाजा हाफ़िज़-

एक बार का ज़िक्र है, एक साहूकार था जो अपने कारोबार में अन्य लोगों से बहुत भिन्न था। उसे एक पूरे गुरु की खोज थी जो उसे सत्य का ज्ञान दे सके। उन दिनों गुरु नानक देव का नाम हिन्दुस्तान के कोने-कोने में फैल चुका था। उस साहूकार को उनसे मिलने की बहुत चाह थी, क्योंकि उसे विश्वास था कि वे ही उसे रूहानी भेद पाने का तरीक़ा बता सकते हैं।

गुरु नानक देव जी जगह-जगह की यात्रा करते हुए संयोग से उस साहूकार के गाँव में आ पहुंचे। उन्होंने कुछ दिनों तक उसी गाँव में रहने का फ़ैसला किया। सैकड़ों लोगों ने उनके सत्संग से लाभ उठाया और नामदान भी प्राप्त किया। इनमें वह साहूकार भी शामिल था।

साहूकार के घर के पास उसका एक बहुत पुराना और गहरा मित्र रामदास रहता था। वह भी साहूकारी करता था। गुरु नानक देव के बारे में उसने बहुतसी बातें सुन रखी थी, इसलिए वह भी उनका सत्संग सुनने का इच्छुक था। एक दिन दोनों मित्र एक साथ उस महान् सन्त के चरणों में बैठकर सत्संग सुनने के लिए निकल पड़े। 

लेकिन रास्ते में रामदास की नज़र एक वेश्या पर पड़ी और वह उसके रूप और हाव-भाव पर मोहित होकर उसकी ओर खिंचा चला गया। उसके मित्र ने उसे रोकने की कोशिश करते हुए कहा, "भले आदमी, मुक्ति के आनन्द को छोड़कर नरक की आग में मत कूदो।" लेकिन उसका तर्क कुछ काम न आया। आख़िर साहूकार अकेला ही सत्संग में चला गया।

रोज ऐसा ही होता रहा। दोनों दोस्त घर से इकट्ठे निकलते, रामदास वेश्या के पास रुक जाता और साहूकार सत्संग में पहुँच जाता। रामदास गिरावट की ओर बढ़ता गया और उसके दोस्त की गुरु साहिब के प्रति भक्ति और श्रद्धा दिन प्रतिदिन बढ़ती गयी। साहूकार अपने मित्र को रोज सही रास्ते पर लाने का यत्न करता पर रामदास ने दुराचार का रास्ता न त्यागा। ऐसे ही एक महीना बीत गया।

एक दिन साहूकार ने रामदास से कहा, , "आज गुरु साहिब संगत को प्रसाद देनेवाले हैं। एक बार तो अपने कुकर्मों को छोड़कर मेरे साथ चलो कोई कितना ही बड़ा पापी और गुनहगार क्यों न हो, उसके मन का रुख बदलने के लिए एक सत्संग ही काफ़ी होता है। दोस्ती के नाम पर मैं तुमसे विनती करता हूँ कि आओ, आज मेरे साथ चलो। सत्संग में जाकर ही तुम समझ सकोगे कि सन्तों की संगति से क्या लाभ होता है और उसमें कितना आनन्द प्राप्त होता है।"

रामदास ने बात सुनी-अनसुनी कर दी। फिर अपने मित्र से बोला, "तुम रोज़ सत्संग में जाते हो और पुण्य कमाते हो। मैं रोज़ पाप करता हूँ। देखें, आज हमें अपने-अपने कर्मों का क्या फल मिलता है। ठीक दोपहर को मेरे घर आ जाना, दोनों बैठकर अपना-अपना हाल बयान करेंगे।"

यह कहकर रामदास जल्दी से वेश्या के घर पहुँचा, पर वह घर पर नहीं थी। निराश होकर वह वापस अपने घर आया और अपने मित्र का इन्तज़ार करने लगा। उस दिन सत्संग में और उसके बाद हुई बातचीत में साहूकार इतना खो गया था कि उसे समय बीतने का पता ही नहीं चला। इसलिए उसे घर पहुँचने में उस दिन बहुत देर हो गयी।

मित्र का इन्तज़ार करते-करते समय बिताने के लिए रामदास ने अपनी छड़ी से जमीन को कुरेदना शुरू कर दिया। जमीन नरम थी, इसलिए मिट्टी निकलती गयी। थोड़ी देर के बाद छड़ी एक मिट्टी के घड़े से टकराई जिसके मुँह पर ढक्कन लगा हुआ था। रामदास ने ढक्कन हटाया तो देखा कि ऊपर ही एक सोने की मोहर पड़ी है। 

यह सोचकर कि पूरा घड़ा मोहरों से भरा होगा, उसने जल्दी से उसे जमीन में से निकाल लिया। पर जब उसने देखा कि उसमें केवल एक मोहर है और बाकी सब कोयले के टुकड़े हैं तो वह बहुत निराश हुआ। खुद को दिलासा देते हुए उसने कहा कि चलो, बिना मेहनत किये एक मोहर तो मिली।

उसी समय उसका मित्र लँगड़ाता हुआ चला आया। वह दर्द से बहुत परेशान दिखायी दे रहा था।
"तुम्हें क्या हुआ?" रामदास ने पूछा।

'क्या बताऊँ, अचानक एक लम्बा शूल मेरे पैर में चुभ गया और मैं जख़्मी हो गया। बदक़िस्मती से शूल अन्दर ही टूट गया, जिससे दर्द और भी बढ़ गया।"

इस पर रामदास हँसा और बोला, "मेरे भाई, अब तुम ख़ुद ही देख लो कि सत्संग में जाकर तुम्हें क्या मिला और पाप करने से मुझे क्या हासिल हुआ। तुम शूल की पीड़ से चिल्ला रहे हो और मुझे सोने की मोहर मुफ्त मिल गयी है। क्या तुम अब भी सत्संग का गुणगान करते रहोगे?"

ये शब्द चाहे एक ऐसे व्यक्ति ने कहे थे जिसे सन्तों के सत्संग के आनन्द का ज़रा भी अनुभव नहीं था, फिर भी साहूकार के मन में शंका पैदा हो गयी। वह सोचने लगा, “ऐसा क्यों है कि दुनिया में पाप फलता-फूलता है और नेकी करनेवाले हमेशा दुःख और मुसीबतें ही झेलते हैं। रामदास हमेशा पाप करता रहा और मैं सच्चे दिल से तुम्हारी भक्ति करने की कोशिश करता रहा, फिर भी उसे मोहर मिली और मुझे मिला शूल का असहनीय दर्द। सतगुरु की संगत में जाने का कोई लाभ है भी या नहीं? क्या मुझे गुरु के दिखाये रूहानी मार्ग पर चलते रहना चाहिए? कहीं यह सब एक भ्रम, एक धोखा तो नहीं?"

बहुत देर तक रामदास के साथ इस विषय पर बातचीत करने के बाद उसके मन में विचार आया कि क्यों न गुरु साहिब के पास जाकर उन्हीं से इस पहेली को सुलझाने की प्रार्थना की जाये।

जब दोनों ने अपनी आप-बीती सुनायी तो गुरु साहिब ने अन्तर्ध्यान होकर दोनों के पूर्व-जन्मों पर दृष्टि डाली और पहले रामदास से कहा, "पिछले जन्म में तुमने एक मोहर दान की थी जिसके बदले में तुम्हें मोहरों से भरा हुआ घड़ा मिलना था। लेकिन इस जन्म में तुम बुरे कर्म करने लगे। जैसे ही तुम कोई पाप करते थे, एक सोने की मोहर का कोयला बन जाता था। आज तुम पाप से बचे रहे, इसी लिए एक मोहर तुम्हें मिल गयी, नहीं तो इसका भी कोयला बन जाना था।

फिर गुरु साहिब साहूकार की ओर मुड़े और बोले, "पिछले जन्म में तुम एक बेरहम बादशाह थे, जिसके हुक्म से हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इन कुकर्मों का बदला तुम्हें जुल्म सहकर और फाँसी के तख़्ते पर लटककर देना था। लेकिन तुम सत्संग में आने लगे और गुरु की शरण में आ गये इसलिए तुम्हारे कर्मों का बोझ हलका होता गया। अनगिनत लोगों की हत्या का तुम्हें क्या फल भोगना पड़ा? तुम एक दर्दनाक मौत से अप बच गये और तुम्हारी सूली का शूल हो गया।"

गुरु साहिब के वचन सुनकर दोनों उनके चरणों पर गिर पड़े और अपने को गुनाहों की माफ़ी माँगने लगे। जैसे-जैसे समय बीतता गया, दोनों का मन निर्मल होता गया और उनकी ज़िन्दगी ही बदल गयी। दोनों साध-संगत की सेवा और गुरु-भक्ति में अपना समय बिताने लगे।

पूरे सतगुरु के सत्संग और शरण की महिमा अपार है, इससे सूली का सूल बन जाता है।

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