सूर्य ग्रहण के समय हमारे ऋषि-मुनियों के कथन

ज्योतिष विज्ञान की दृष्टि से सूर्य ग्रहण



आवाज़ ए हिंद टाइम्स सवांदाता, जून, 2020, नई दिल्ली। सूर्य ग्रहण एक तरह का ग्रहण है जब चन्द्रमा, पृथ्वी और सूर्य के मध्य से होकर गुजरता है तथा पृथ्वी से देखने पर सूर्य पूर्ण अथवा आंशिक रूप से चन्द्रमा द्वारा आच्छादित होता है।


भौतिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढक जाता है, इसी घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की। कभी-कभी चाँद, सूरज और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है जिससे धरती पर साया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना सदा सर्वदा अमावस्या को ही होती है।


पूर्ण ग्रहण - 


अक्सर चाँद, सूरज के सिर्फ़ कुछ हिस्से को ही ढ़कता है। यह स्थिति खण्ड-ग्रहण कहलाती है। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि चाँद सूरज को पूरी तरह ढँक लेता है, इसे पूर्ण-ग्रहण कहते हैं। पूर्ण-ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ पचास (250) किलोमीटर के सम्पर्क में। इस क्षेत्र के बाहर केवल खंड-ग्रहण दिखाई देता है। पूर्ण-ग्रहण के समय चाँद को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं। चाँद सूरज को पूरी तरह से, ज़्यादा से ज़्यादा, सात मिनट तक ढँकता है। इन कुछ क्षणों के लिए आसमान में अंधेरा हो जाता है, या यूँ कहें कि दिन में रात हो जाती है।


ज्योतिष विज्ञान की दृष्टि से सूर्य ग्रहण -


ग्रहण प्रकृ्ति का एक अद्भुत चमत्कार है। ज्योतिष के दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो अभूतपूर्व अनोखा, विचित्र ज्योतिष ज्ञान, ग्रह और उपग्रहों की गतिविधियाँ एवं उनका स्वरूप स्पष्ट करता है। सूर्य ग्रहण (सूर्योपराग) तब होता है, जब सूर्य आंशिक अथवा पूर्ण रूप से चन्द्रमा द्वारा आवृ्त (व्यवधान / बाधा) हो जाए। इस प्रकार के ग्रहण के लिए चन्दमा का पृथ्वी और सूर्य के बीच आना आवश्यक है। इससे पृ्थ्वी पर रहने वाले लोगों को सूर्य का आवृ्त भाग नहीं दिखाई देता है।


सूर्यग्रहण होने के लिए निम्न शर्ते पूरी होनी आवश्यक है।
अमावस्या होनी चाहिये
चन्द्रमा का अक्षांश शून्य के निकट होना चाहिए।


उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाने वाली रेखाओं को रेखांश कहा जाता है तथा भूमध्य रेखा के चारो वृ्ताकार में जाने वाली रेखाओं को अंक्षाश के नाम से जाना जाता है। सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। जब चन्द्रमा क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हों। चन्द्र और राहु या केतु के रेखांश बहुत निकट होने चाहिए। चन्द्र का अक्षांश लगभग शून्य होना चाहिये और यह तब होगा जब चंद्र रविमार्ग पर या रविमार्ग के निकट हों, सूर्य ग्रहण के दिन सूर्य और चन्द्र के कोणीय व्यास एक समान होते हैं। इस कारण चन्द सूर्य को केवल कुछ मिनट तक ही अपनी छाया में ले पाता है। सूर्य ग्रहण के समय जो क्षेत्र ढक जाता है उसे पूर्ण छाया क्षेत्र कहते हैं।


प्रकार - 


चन्द्रमा द्वारा सूर्य के बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढ़के जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।


1. पूर्ण सूर्य ग्रहण-


उत्तरी अमरीका से लिया गया पूर्ण सुर्य ग्रहण का दृश्य-


पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृ्थ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले ले फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृ्थ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृ्थ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है।[4]


2. आंशिक सूर्य ग्रहण-


आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात चन्दमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है।


3. वलयाकार सूर्य ग्रहण-


वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात चन्द्र सूर्य को इस प्रकार से ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहलाता है।


खगोल शास्त्रीयों की गणनायें - 


खगोल शास्त्रियों नें गणित से निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं। किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिए। हाँ, यदि किसी वर्ष 2 ही ग्रहण हुए तो वो दोनो ही सूर्यग्रहण होंगे। यद्यपि वर्षभर में 7 ग्रहण तक संभाव्य हैं, तथापि 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुन: होता है। किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं हैं, क्योंकि सम्पात बिन्दु निरन्तर चल रहे हैं।


साधारणतय सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि चन्द्र ग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं। 3 चन्द्रग्रहण पर 4 सूर्यग्रहण का अनुपात आता है। चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के बहुत बड़े भाग में प्राय सौ मील से कम चौडे और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में दिखलाई पडते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास (जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है) ग्रहण हो तो गुजरात में खण्ड सूर्यग्रहण (जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढंकता है) ही दिखलाई देगा और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा।


वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य ग्रहण -


चाहे ग्रहण का कोई आध्यात्मिक महत्त्व हो अथवा न हो किन्तु दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए यह अवसर किसी उत्सव से कम नहीं होता। क्यों कि ग्रहण ही वह समय होता है जब ब्राह्मंड में अनेकों विलक्षण एवं अद्भुत घटनाएं घटित होतीं हैं जिससे कि वैज्ञानिकों को नये नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मंडल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था।


आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी। चन्द्रग्रहण तो अपने संपूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौडे क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं। संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही संभव है।


यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाए तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूंजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाए तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी संभव हो सकती है।


भारतीय वैदिक काल और सूर्य ग्रहण -


वैदिक काल से पूर्व भी खगोलीय संरचना पर आधारित कलैन्डर बनाने की आवश्कता अनुभव की गई। सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण तथा उनकी पुनरावृत्ति की पूर्व सूचना ईसा से चार हजार पूर्व ही उपलब्ध थी। ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि के परिवार के पास यह ज्ञान उपलब्ध था। वेदांग ज्योतिष का महत्त्व हमारे वैदिक पूर्वजों के इस महान ज्ञान को प्रतिविम्बित करता है।


ग्रह नक्षत्रों की दुनिया की यह घटना भारतीय मनीषियों को अत्यन्त प्राचीन काल से ज्ञात रही है। चिर प्राचीन काल में महर्षियों नें गणना कर दी थी। इस पर धार्मिक, वैदिक, वैचारिक, वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण के ज्ञान को देने वाले प्रथम आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाश काल अर्थात वैदिक काल से ग्रहण पर अध्ययन, मनन और परीक्षण होते चले आए हैं।


सूर्य ग्रहण के समय हमारे ऋषि-मुनियों के कथन -


हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।


पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की संतान हैं। चंद्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।


ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्‌मण को दान देने का विधान है। कहीं-कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है। पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है। ग्रहण के बाद डोम को दान देने का अधिक माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।


सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये। बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना - ये सब कार्य वर्जित हैं। ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए। ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। 'देवी भागवत' में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये।


सूर्य ग्रहण का समय ग्रहण का स्पर्शकाल (starting time)- सुबह 10 :19 मिनट पर होगा І


ग्रहण का मध्यकाल (Mid time) – दोपहर 12 :01 मिनट पर होगा І


ग्रहण का मोक्षकाल (end time) – दोपहर 1:48 मिनट पर होगा І


जाने क्यों खास है 21 june का सूर्य ग्रहण? – 21 जून दिन रविवार को सूर्य ग्रहण लगेगा Ι


– 21 जून को सूर्य ग्रहण के दिन ही सूर्य कर्क रेखा के एकदम ठीक ऊपर आएगा Ι


-21 जून का दिन साल का सबसे बड़ा दिन माना जाता है ऐसा संयोग दूसरी बार 900 साल बाद बना है जब इस दिन SURYA GRAHAN लगा हो Ι


– 21 जून को सूर्य ग्रहण के दिन रविवार (SUNDAY) का दिन भगवान सूर्य को समर्पित होता है Ι


कब और कहाँ – कहाँ दिखाई देगा सूर्य ग्रहण ? 21 जून को होने वाला सूर्य ग्रहण भारत ,नेपाल, पकिस्तान , सऊदी अरब , यू.ए.ई , एथोपिया तथा कांगो में दिखाई देगा І


Surya Grahan India में कहाँ दिखाई देगा ? – नई दिल्ली, बंगलौर, लखनऊ,चंडीगढ़, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, पाकिस्तान – कराची और नेपाल – काठमांडू जैसे शहरो में आंशिक रूप में देखा जा सकता है І


पर्वकाल (स्नान दान के लिये उपयुक्त समय) 1 बजकर 36 मिनट से दिन 3 बजकर 34 मिनट तक।


यह ग्रहण मृगशिरा एवं आद्रा नक्षत्र तथा मिथुन राशि पर मान्य है। अतः इन राशि नक्षत्र वालों को ग्रहण दर्शन नहीं करना चाहिए। मेष सिंह, कन्या, मकर राशि के लिये ग्रहण दर्शन शुभ, वृषभ, तुला, धनु, कुम्भ राशि के लिये ग्रहण दर्शन का फल सामान्य एवं मिथुन, कर्क, वृश्चिक, मीन राशि के लिये दर्शन अशुभ रहेगा।


राशि अनुसार ग्रहण का फल एवं उपाय-


️️️️️️️️️️️️मेष राशि के जातकों के लिये यह ग्रहण शुभ फल प्रदान करेगा, ग्रहण के प्रभाव से धन लाभ के साथ पराक्रम में वृद्धि होगी जन सम्पर्क बढेगा।


उपाय कपिला गाय को लाल वस्त्र ओढाकर गुड़ में बनी रोटियां खिलाये। 


मंत्र जप ॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम: अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


वृष राशि जातको के लिये यह ग्रहण हानिकारक रहेगा नौकरी व्यवसाय संबंधित समस्या खड़ी होगी। आंखों में समस्या हो सकती है। इन जातकों को ग्रहण दर्शन से बचना चाहिये।


उपाय सूतक से पहले गूलर की जड़ बाजू में बांधकर रखें तथा सवा 5 या 11 किलो आटा सर से 11 बार उसार कर धर्म क्षेत्र पर दान करें। 


मंत्र जप ॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम:। अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


मिथुन राशि पर यह ग्रहण घटित होने के कारण इस राशि के जातकों को विशेष रूप से सतर्क रहने की आवश्यकता है। किसी न किसी रूप में गंभीर शारीरिक कष्ट के साथ मानसिक एवं आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ेगा।


उपाय श्रीफल (जटा वाला नारियल) सूतक काल से पहले सर से 11 बार उसार कर बहते जल में प्रवाहित करें। अपने मनपसंद की कोई भी खाद्य वस्तु विकलांगो में बांटना कल्याणकारक होगा। जयंती घास की जड़ को चारबार करके पहने।


मंत्र जप ॐ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम:


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


कर्क कर्क राशि से यह ग्रह 12वां होने के कारण किसी न किसी रूप में हानि ही कराएगा इन जातको को धन के निवेश और वाहनादि से सतर्क रहना होगा। 


उपाय सूतक से पहले और बाद में शिवलिंग पर सवा-सवा किलो दूध अथवा कच्ची लस्सी से अभिषेक करें 11 किलो चावल सर से 11 बार उसार कर आश्रम आदि धर्म संस्थाओं में दान करना, चंदन का लेप, पीपल की जड़ दुहरी कर दायें हाथ में बांधे। और ॐ नमस्ते रुद्रमन्यव उतोत इषवे नमः। ते नमः । ॐ रुद्राय नमः। बाहुम्यामुत मंत्र का ग्रहण काल मे ज्यादा से ज्यादा जप करना हितकर रहेगा। 


मंत्र जप ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्राय नम:


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


सिंह सिंह राशि के लिये यह ग्रहण लाभप्रद रहेगा। सार्वजिनक क्षेत्र पर सम्मान के साथ मनोकामना पूर्ति होने के आसार बनेंगे। आकस्मिक लाभ होगा।


उपाय ग्रहण के सूतक से पहले और बाद में अंडविद्यालय अथवा नेत्रहीनों को अपने पसंद के वस्त्र और भोजन कराना अत्यंत शुभ होगा।


मंत्र जप ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


कन्या कन्या राशि जातको के लिये यह ग्रहण सुखकारी रहेगा। किसी मनोकामना अथवा विशेष कार्य के सिद्ध होने की संभावना बनेगी। आर्थिक लाभ भी हो सकता है। सरकारी कार्यो में विजय मिल सकती है।


उपाय सूतक से पहले और बाद में गणेश जी को 21 गांठे दूर्वा की अर्पण करें। गाय को 100 किलो अथवा यथा सामर्थ्य हरा चारा खिलाने से उपरोक्त फल अवश्य प्राप्त होंगे।


मंत्र जप ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम:


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


तुला⚖️ तुला राशि जातको के लिये ग्रहण फल सामान्य फलदायक रहेगा फिर भी इस अवधि में व्यर्थ के प्रपंचो से बचना आवश्यक है अन्यथा अपमान हो सकता है। 


उपाय सूतक से पहले और ग्रहण के बाद दूध मिश्रित शर्बत अथवा ठंडाई ज्यादा से ज्यादा लोगो को पिलाने से शुभ फल प्राप्त होंगे।


मंत्र जप ॐ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम:।


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


वृश्चिक वृश्चिक राशि के जातकों के लोय यह ग्रहण महाकष्टदायक सिद्ध होगा। विशेष कर शरीर मे कोई कष्ट बन सकता है। धन का व्यर्थ व्यय होने के योग भी है।


उपाय ग्रहण के सूतक से पहले 4 मुट्ठी लाल मसूर की दाल और श्रीफल सर से 11 बार उसार कर बहते जल में प्रवाहित करें। ग्रहण के बाद धर्म क्षेत्र पर गुड़ और गेंहू का यथा सामर्थ्य दान करना शुभ रहेगा। रक्त दान का अवसर मिले तो सूतक से पहले अवश्य करें।


मंत्र जप ॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम:। अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


धनु राशि के जातकों के लिये यह ग्रहण दाम्पत्य जीवन को लेकर अशुभ फल देगा। स्त्री अथवा पति को किसी न किसी रूप में कष्ट होने की संभावना है। जिम्मेदारिया बढ़ने के बाद भी अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ सकता है।


उपाय गुरु अथवा गुरु तुल्य व्यक्ति को पीले वस्त्रो के साथ यथा सामर्थ्य दक्षिणा दें। कपिला गाय को गुड़ चने खिलाये। माता के मंदिर में सूतक से पहले रात्रि में 11 या 21 दीपक जलाएं।


मंत्र जप ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नम:।


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


मकर मकर राशि जातको के लिये यह ग्रहण किसी न किसी रूप में सुख की प्राप्ति कराएगा। विशेषकर इस ग्रहण के प्रभाव से घर अथवा बाहर के जो लोग आपसे नाराज चल रहे थे उनसे संबंधों में सुधार आएगा। पुराना धन वापस मिल सकता है।


उपाय ग्रहण के सूतक से पहले 9 मुट्ठी सबूत उडद की दाल और एक श्रीफल सर से 11 बार उसार के बहते जल में प्रवाहित करें। ग्रहण के बाद स्नान कर लोहे की वस्तु और एक झाड़ू धर्म क्षेत्र पर दान करना शुभ रहेगा।


मंत्र जप ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


कुंभ कुम्भ राशि के जातको के लिये यह ग्रहण विविध चिंताएं बढ़ाएगा। आर्थिक एवं मानसिक रूप से कमजोर कर सकता है। स्वयं के साथ परिजनों के कारण कष्ट होने की सम्भवना है।


उपाय ग्रहण के सूतक से पहले धर्म क्षेत्र पर 3 झाड़ू का एवं ग्रहण के बाद कम से कम 41 किलो काले तिल या काली दाल का दान करना आवश्यक है।


मंत्र जप ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


मीन मीन राशि के जातको के लिये यह ग्रहण किसी ना किसी रूप में कष्टकारी सिद्धि होगा। साथ ही  किसी अनुबंध अथवा आशा के टूटने से मानसिक तनाव हो सकता है। 


उपाय ग्रहण के सूतक से पहले 7 मुट्ठी काले तिल और एक श्रीफल सर से 11 बार उसार कर बहते जल में प्रवाहित करें। ग्रहण के बाद गुरुजनों की इच्छा अनुसार सेवा करने से कष्टो से मुक्ति मिलेगी।


मंत्र जप ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नम:।


अथवा गुरु से मिले मंत्र का यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जप।


ग्रहणकाल मे करने योग्य पौराणिक विचार-


️️️️️️️️️️️️हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।


पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की संतान हैं। चंद्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।


ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं।


ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्‌मण को दान देने का विधान है। कहीं-कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है। पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है। ग्रहण के बाद डोम (शमशान में मृतिक क्रिया करने वाले व्यक्ति) को दान देने का अधिक महात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।


सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये। बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना - ये सब कार्य वर्जित हैं।


ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए। ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। 'देवी भागवत' में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये।


सूर्य ग्रहण की पौराणिक कथा-


️️️️️️️️️सूर्यग्रहण के दौरान घट चुकी है ये घटनाएं-


मत्स्य पुराण के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान, निकले अमृत को राहू- केतु ने छीन लिया था, तब से ग्रहण की कथा, इतिहास चला आ रहा है।


द्रौपदी के अपमान का दिन सूर्य ग्रहण का था।


महाभारत का 14वां दिन, सूर्य ग्रहण का था और पूर्ण ग्रहण पर अंधेरा होने पर जयद्रथ का वध किया गया।


जिस दिन श्री कृष्ण की द्वारिका डूबी वह भी सूर्य ग्रहण का दिन था।


सूर्य ग्रहण की पौराणिक कथा-


️️️️️️️️️मत्स्यपुराण की कथानुसार, समुद्र मंथन और सूर्य ग्रहण का पौराणिक संबंध है। शास्त्रों के अनुसार सूर्य ग्रहण के पीछे राहु-केतु जिम्मेदार होते हैं। इन दो ग्रहों की सूर्य और चंद्र से दुश्मनी बताई जाती है। यही वजह है कि ग्रहण काल में कोई भी कार्य करने की सलाह नहीं दी जाती है। इस दौरान राहु-केतु का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। इन दो ग्रहों के बुरे प्रकोप से बचने के लिए ही सूतक लगते हैं। ग्रहण के दौरान मंदिरों तक में प्रवेश निषेध होता है। मान्यता है कि ग्रहण में इन ग्रहों की छाया मनुष्य के बनते कार्य बिगाड़ देती है। शास्त्रों में ग्रहण काल में कोई शुभ कार्य तो दूर सामान्य क्रिया के लिए भी मनाही है। इस ग्रहण के लगने के पीछे एक पौराणिक कथा है।


जब दैत्यों ने तीनों लोक पर अपना अधिकार जमा लिया था तब देवताओं ने भगवान विष्णु से मदद मांगी थी। तीनों लोक को असुरों से बचाने के लिए भगवान विष्णु का आह्वान किया गया था। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को क्षीर सागर का मंथन करने के लिए कहा और इस मंथन से निकले अमृत का पान करने के लिए कहा। भगवान विष्णु ने देवताओं को चेताया था कि ध्यान रहे अमृत असुर न पीने पाएं क्योंकि तब इन्हें युद्ध में कभी हराया नहीं जा सकेगा।


भगवान के कहे अनुसार देवताओं ने क्षीर सागर में समुद्र मंथन किया। समुद्र मंथन से निकले अमृत को लेकर देवता और असुरों में लड़ाई हुई। तब भगवान विष्णु ने मोहनी रूप धारण कर एक तरफ देवता और एक तरफ असुरों को बिठा दिया और कहा कि बारी-बारी सबको अमृत मिलेगा। यह सुनकर एक असुर देवताओं के बीच वेश बदल कर बैठ गया, लेकिन चंद्र और सूर्य उसे पहचान गए और भगवान विष्णु को इसकी जानकारी दी, लेकिन तब तक भगवान उसे अमृत दे चुके थे।


अमृत गले तक पहुंचा था कि भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से असुर के धड़ को सिर से अलग कर दिया, लेकिन तब तक उसने अमृतपान कर लिया था। हालांकि, अमृत गले से नीच नहीं उतरा था, लेकिन उसका सिर अमर हो गया। सिर राहु बना और धड़ केतु के रूप में अमर हो गया। भेद खोलने के कारण ही राहु और केतु की चंद्र और सूर्य से दुश्मनी हो गई। कालांतर में राहु और केतु को चन्द्रमा और पृथ्वी की छाया के नीचे स्थान प्राप्त हुआ है। उस समय से राहु, सूर्य और चंद्र से द्वेष की भावना रखते हैं, जिससे ग्रहण पड़ता है।


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