जब इरादा कर लिया उंची उड़ान का फिर कद क्या देखना आसमान का

सहचिंतन


जब इरादा कर लिया उंची उड़ान का फिर कद क्या देखना आसमान का


- जगदीश चावला -



वैसे तो हर व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब वह आगे बढ़ने की सोचता है। लेकिन शारीरिक अक्षमता, पैसे की कमी और अपने पर आत्मविश्वास के अभाव में वह आगे नहीं बढ़ पाता। ऐसे में जो लोग अपनी जिंदगी को बोझ मानते हैं वे दरअसल अपनी क्षमताओं को नहीं पहचानते, अपने आपसे कभी रूवरू नहीं होते और अपने लक्ष्य की तलाश व तैयारी भी अधूरे मन से करते हैं। इसीलिए वे दूसरों के मोहताज बनें रहते हैं, दूसरों का हाथ थामते है और उनके पदचिन्हों को खोजते हैं। फिर भी उन्हें यह समझ में नहीं आता कि उधार में ली गई बैसाखियां सिर्फ सहारा दे सकती है, गति नहीं।


लेकिन मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी उड़ान को जारी रखा और आज उनकी चैखट पर सफलता की शहनाइयां गूंजती है।


देश के जाने माने बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चैरसिया को मैने कई मंचों पर बांसुरी बजाते देखा है। उनकी बांसुरी में सिर्फ सुरीलापन ही नहीं वरन् कला और अध्यात्म के दर्शन भी होते है। इसीलिए कई श्रोता यह कहने से गुरेज नहीं करते कि उनकी बांसुरी ऐसी है जिसमें स्वयं कन्हैया आ जाते है। 1 जुलाई 1938 को इलाहाबाद में जन्में हरि प्रसाद चैरसिया के रेसलर पिता उन्हें पहलवान बनाना चाहते थे, लेकिन इन्हें बांसुरी बजाने का शौक ऐसा लगा कि अपनी अच्छी खासी सरकारी नौकरी छोड़कर इन्होंने बांसुरी वादन को ही अपनी साधना और आजीविका का हिस्सा बना लिया। वे 1952 से बांसुरी बजा रहे हैं, लेकिन इनकी शौहरत दुनिया भर में है। पद्म भूषण और पद्म विभूषण जैसे सम्मान से नवाजे जा चुके पंडित हरि प्रसाद चोरसिया को जहां ब्रिटेन का शाही परिवार सम्मानित कर चुका है वहीं पर फ्रांसीसी सरकार ने भी उन्हें ‘नाइट आॅफ द आर्डर आॅफ आर्टस एंड लेटर्स जैसे जैसे खिताब से सम्मानित किया है।


दिल्ली के कमानी आडिटोरियम में उनसे हुई एक मुलाकात में यह पूछने पर कि आपको बांसुरी बजाने का शौक कैसे लगा? तो हरि प्रसाद चैरसिया ने बताया कि ‘‘मैं एक दिन अखाडे़ में पहलवानी करके घर लौट रहा था। तभी मैंने रास्ते में देखा कि एक लड़का बहुत मधुर बांसुरी बजा रहा था। उसकी बांसुरी भी बहुत अच्छी थी। पर मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं उसे खरीद पाता। तभी अचानक वह लड़का एक नल पर पानी पीने लगा। मुझे वह मौका अच्छा लगा तो मैं धीरे-धीरे उसके पास गया और उसकी बांसुरी लेकर भाग निकला। घर पहुंचने तक मैंने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा और घर में ही छिप गया। एक घंटे बाद जब मैं बाहर निकला तो मुझे यकीन हो गया कि वह नहीं आएगा। बस उस दिन मैं देर रात तक बांसुर बजाता रहा। पढ़ाई लिखाई में मैं कुछ खास नहीं था। लेकिन स्कूल के कार्यक्रमों में बांसुरी बजाने की वजह से मुझे हर साल पास कर दिया जाता था। फिर ऐसी बांसुरी कौन बजाएगा?


इन्होंने यह भी कहा कि शौक या काम कोई भी हो वह समर्पण चाहता है। हालांकि हमारे समर्पण और कामों में कुछ ऐसी दुश्वारियां भी आती है। जो हमारे साहस और बुद्धिमत्ता को ललकारती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वही समस्याएं हमसे साहस और बुद्धिमत्ता का सृजन भी करती हैं। ऐसे में अपनी उड़ान के दौरान आने वाली समस्याओं से कतराना या उनसे बचकर निकलना एक तरह की मानसिक रूग्णता है, जिसे हमें अपने पर हावी नहीं होने देना चाहिए।


पंडित हरिप्रसाद चैरसिया की तरह हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को समृद्ध बनाने में जो नाम शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, मोहन वीणा के वादक विश्व मोहन भट्ट, वायलिन वादक डा. एन. राजम, सितार वादक रवि शंकर, संतूरवादक पंडित शिव कुमार, आदि ने कमाया है, वह उनकी सफल उड़ानों का ही प्रतिफल है। इन सबन ने अपने हुनर को कैसे संवारा, सुधारा और निखारा यह भी जानने लायक है। अभी हाल ही में अमेरिकी गीतकार बॉब डिलान को साहित्य का जो नोबल पुरस्कार दिया गया है, वह भी नकी उस उंची उड़ान के लिए है, जिसमें उन्होंने अमेरिका की गीत परंपरा को नए काव्य में अभिव्यक्त करने का करिश्मा कर दिखलाया है। बॉब डिलान का वास्तविक नाम राबर्ट एलन जिमरमन है और इनका जन्म 1941 में मिनिसेटा के डलथ में एक गरीब यहूदी परिवार में हुआ था। बॉब हिबिंग में जवान हुए और अपनी पहली पत्नी से सम्बन्ध विच्छेद होने के कारण इन्होंने ईसाइयत को अपना लिया था। वे हारमोनियम और पियानों के अच्छे वादक हैं तथा अपने लिखे गीतों का संगीत भी खुद तैयार करते है।


स्वीडिश अकादमी के स्थाई सचिव सारा डेनियस का कहना है कि ‘डिलान के गीत भुगांतकारी है और उनके ब्लोन इन द विंड तथा मास्टर्स आॅफ वार जैसे गानों में विद्रोह, असंतोष और आजादी की तड़प ज्यादा झलकती है। वे होमर तथा सफ्फो की वाचिक कविता को भी आगे ले जाने का दम रखते है।


वैसे बॉब डिलान को इससे पहले आस्कर और ग्रैमी अवार्ड भी मिल चुके है। बॉब इतने महान पॉप स्टार कैसे बने, इसके लिए यह जानना जरूरी है कि वर्ष 1960 के दशक में जब पूरी दुनिया एक अलग तरह की उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी और अमेरिका वियतनाम के युद्ध में इस कदर फंस गया था कि वहां पर युद्धविरोधी माहौल बन गया था। तब के युवा असंतोष को आवाज देने वाले बॉब डालिन का पहला एलबम न केवल हिट रहा बल्कि वह अमेरिका के युद्ध विरोधी आंदोलनों का समूह-गान भी बन गया था। उसी वक्त से मिली शोहरत और अपनी अनूठी शैली से उभरे बॉब अब ऐसे पहले अमेरिकी हैं जिन्हें चर्चित उपन्यासकार टोनी मॉरिशन (1993) के बाद साहित्य के इस नोबल पुरस्कार में 18 कैरेट के गोल्ड मेडल के साथ 6.18 करोड़ रूपये की पुरस्कार राशि देने का ऐलान किया गया है।


किसी भी देश में उंची उड़ान भरने के लिए सिर्फ पंखों का होना जरूरी नहीं है। पंखों के साथ-साथ वह साहस भी होना चाहिए जो आपकी हार-जीत का मूल्यांकन कर सके। मैंने अक्सर देखा है कि जब किन्हीं लोगों की हिम्मत और साहस जवाब देने लगते हैं तो वे अपनी निराशा का दोष भी दूसरों के सिर चढ़ना शूरू कर देते है। अपनी खराब शुरूआत के लिए वे कभी खुद को कोसते है तो कभी दूसरों को। इस बारे में लाइफ कोच डब्ल्यू वेन डायर का कहना है कि जो जोखिम लेना नहीं जानता, वह कुछ भी नहीं कर सकता। कोलंबस, आंइस्टीन, ग्राहमबेल, वाल्ट डिज्नी, बिल गेट्स इसी लिए सफलता की बुलंदियों को छू पाए क्योंकि उनमें जोखिम उठाने और फिर से लड़ने का साहस था जो बेमकसद नहीं था।


यहां मुझे उस रिर्चड टेविथिक की याद हो आती है जो 1801 में इंग्लैंड की एक कोयला खादान में एक इंजीनियर था और ऐसे में वह लोगों को भाप से इंजन चला कर दिखाने वाला था। उसके इंजन को देखने के लिए भी की उत्सुकता अपने चरम थी। कुछ ही देर में लोटे का बना एक बड़ा इंजन जब तेज घरघराहट के साथ मैदान में आया तो पहले उसकी गति धीमी थी फिर तेज हो गई। उस इंजन को देखकर वहां खडे़ हजूम ने तालियां बजाकर रिर्चड टेविथिक को बधाईयां दीं। कुछ समय बाद जब रिचर्ड अपने कुछ साथियों के साथ एक ढाबे में कुछ खाने-पीने लगा तो बाहर आते ही उसके हाथों के तोते उड़ गए। उसने देखा कि वर्षो की मेहनत से बनाया उसका इंजन बायलर बंद न करने की वजह से जल चुका था। रिचर्ड को अपनी इस गलती का एहसास हुआ और वह फिर से दूसरा इंजन बनाने में जुट गया। इस तरह 1803 में उसने दूसरा इंजन तैयार कर लिया और उसे लंदन के शहर में प्रदर्शित किया। इस इंजन को सुधारने के लिए उसके पास पैसों की कमी थी पर किसी ने उसकी कोई मदद नहीं की। लिहाजा उसे अपने इस इंजन के पुर्जो को भी रद्दी के भाव बेचना पड़ा। 1804 में रिचर्ड ने फिर से अपने नए इंजन को रेल की पटरियों पर चला कर दिखलाया। उसके जिस जगह पर पहली बार रेल की पटरियां गोल घेरे में बछाई थी, आज वहीं पर लंदन का हयूस्टन रेलवे स्टेशन है। यह रिचर्ड टेविथिक ही थे जिन्होंने अपनी अनेक उड़ान से आगे आने वाले वैज्ञानिकों तथा इंजीनियरों के लिए रेल यात्रा के मार्ग प्रशस्त किए।


इसीलिए मेरा मानना है कि हार का कोई जश्न नहीं मनाया जाता पर हार से मिली सीख जरूर जश्न तक ले जाती है। इसलिए जब भी आपकी किसी उड़ान में परेशानियां आए तो किन्तु-परन्तु के चक्कर में न फंसकर निर्णायक तरीके से सोचें। इस पार या उस पार। मझधार में रहना हमेशा संकट पैदा करता है। वैसे आसमान भी वहीं छूते हैं जिनके पांव जमीन पर होते है। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थरेसा कभी अपनी जबखर्ची के लिए एक बेकरी मेंं काम करती थीं पर अब उनकी उड़ान ने उन्हें कहा से कहा तक पहुंचाया है, यह देखना भी काबिले रश्क है। दुनिया की सबसे अमीर महिलाओं में से एक झेंनचिन ने कभी पेपर रिसाइकलिंग का व्यवसाय शुरू किया था। उन्हें भी परेशानियां उठानी पड़ी थी। पर आज वे भी कहती है कि परेशानियो को देखकर अपने पंख सिकोड़ लेना कोई समझदारी नहीं है। अतः जो लोग अपने जीवन में उंची उड़ान का दम भरते है, उन्हें आसमान का कद देखकर कभी घबराना नहीं चाहिए।


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