संसद के मॉनसून सत्र में जिस तरह सत्ता पक्ष की ओर से निलंबर की कार्रवाई चल रही है, उसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है। संसद सत्र के दौरान हंगामा करना, नारे लगाना या वेल में जाना कोई नई बात नहीं है। यह भी सही है कि इसकी वजह से कई बार सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है।
यह समझना जरूरी है कि संसद के दोनों सदनों में क्लासरूम जैसे अनुशासन की न तो जरूरत होती है और न उसकी अपेक्षा की जा सकती है। हर सांसद अपने क्षेत्र की जनता की आवाज होता है। वह उनकी सोच और उनके हितों की नुमाइंदगी कर रहा होता है। इसी तरह विपक्ष का अपना दायित्व होता है जो सरकार की इच्छा और उसकी तय की हुई शर्तों के अनुरूप चलने से पूरा नहीं होता। भले सत्ता पक्ष के पास संख्या बल हो, विपक्ष की आवाज को संरक्षित करने की जिम्मेदारी उसकी भी होती है। इस जिम्मेदारी को नजरअंदाज करना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है। चिंता की बात है कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में यह प्रवृत्ति कमजोर पड़ने के बजाय मजबूत हो रही है। पिछले सत्र में विपक्ष के 12 सदस्य निलंबित किए गए थे। इस बार राज्यसभा के 19 सदस्य एक साथ निलंबित कर दिए गए, जो अब तक का रेकॉर्ड है। समझना होगा कि ऐसे कदमों से सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच चला आ रहा तनाव कम नहीं होता, बल्कि बढ़ जाता है। इससे सदन के भीतर कामकाज के लायक माहौल बनाना और मुश्किल हो जाता है। दोनों पक्षों के जिम्मेदार सदस्यों को अपनी तरफ से तत्काल पहल करके समझौते की कोई राह निकालने की कोशिश करनी चाहिए।
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